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आदिकालीन जैन काव्य: प्रवृत्तियाँ और परम्परा

  • 1. जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर,राजस्थान, भारत

Description

 जैन साहित्य अपने युग के घटना-चक्रों से प्रेरित एवं प्रभावित रहा है। उसमें सामान्य जन की आशा-आकांक्षा-अभिलाषाओं का यथार्थ अंकन किया गया है।  भाव-धारा की दृष्टि से जैन साहित्य ने एक विशिष्ट धार्मिक वातावरण की सृष्टि की लेकिन कला-दृष्टि से जैनाचार्यों ने विविध काव्य-रूपों को अपनाया जो कि उनके ज्ञान का परिचायक है। उनके द्वारा अपनाए गए काव्य-रूपों में चरित-काव्य, रास (प्रबंधात्मक काव्य) एवं फागु (गेय काव्य) प्रमुख हैं लेकिन इसके अतिरिक्त उन्होंने कुलक, चर्चरी, स्तुति, संवाद, वेलि, चौपाई आदि में भी रचना की। यही नहीं परवर्ती साहित्यकारों पर भी जैन साहित्य का व्यापक प्रभाव पड़ा, जिनमें जायसी, तुलसी एवं सूरदास जैसे प्रमुख कवि रहे हैं। जायसी का ‘पद्मावत’ धनपाल के ‘भविष्यदत्तकहा’ अथवा ‘भविसयत्कहा’ से प्रेरित है तो तुलसीदास का ‘मानस’ स्वयंभू के ‘पउमचरिउ’ से प्रभावित है। सूरदास का वात्सल्य वर्णन पुष्पदन्त के ऋषभदेव की बाललीला से तथा हेमचन्द्र की प्रोषितपतिकाओं के सुन्दर उदाहरण सूर की गोपियों की विरह-दशा से साम्य रखते हैं।

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आदिकालीन जैन काव्य प्रवृत्तियाँ और परम्परा.pdf

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Dates

Submitted
2024-07-09
Accepted
2024-07-22

References

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